प्रतिज्ञा अध्याय 10
आदर्श हिंदू-बालिका की भाँति प्रेमा पति के घर आ कर पति की हो गई थी। अब अमृतराय उसके लिए केवल एक स्वप्न की भाँति थे, जो उसने कभी देखा था। वह गृह-कार्य में बड़ी कुशल थी। सारा दिन घर का कोई-न-कोई काम करती रहती। दाननाथ को सजावट का सामान ख़रीदने का शौक़ था, वह अपने घर को साफ-सुथरा सजा हुआ देखना भी चाहते थे। लेकिन इसके लिए जिस संयम और श्रम की जरूरत है, वह उनमें न था। कोई चीज़ ठिकाने से रखना उन्हें आता ही न था। ऐनक स्नान के कमरे के ताक पर रख दिया, तो उसकी याद उस वक्त आती जब कॉलेज में उसकी जरूरत पड़ती। खाने-पीने, सोने-जागने का कोई नियम न था। कभी कोई अच्छी पुस्तक मिल गई, तो सारी रात जागते रहे। कभी सरेशाम से सो रहे, तो खाने-पीने की सुध न रही। आय-व्यय की व्यवस्था न थी। जब तक हाथ में रुपए रहते, बेदरेग खर्च किए जाते, बिना जरूरत की चीज़ें आया करतीं। रुपए खर्च हो जाने पर, लकड़ी और तेल में किफायत करनी पड़ती थी। तब वह अपनी वृद्ध माता पर झुँझलाते, पर माता का कोई दोष न था। उनका बस चलता तो अब तक दाननाथ चार पैसे के आदमी हो गए होते। वह पैसे का काम धेले में निकलना चाहती थी। कोई महरी, कोई कहार, उनके यहाँ टिकने न पाता था। उन्हें अपने हाथों काम करने में शायद आनंद आता था। वह गरीब माता-पिता की बेटी थी, दाननाथ के पिता भी मामूली आदमी थे और फिर जिए भी बहुत कम। माता ने अगर इतनी किफायत से काम न लिया होता तो दाननाथ किसी दफ़्तर के चपरासी होते। ऐसी महिला के लिए कृपणता स्वाभाविक ही थी। वह दाननाथ को अब भी वही बालक समझती थीं जो कभी उनकी गोद में खेला करता था। उनके जीवन का वह सबसे आनंदप्रद समय होता था जब दाननाथ के सामने थाल रख कर वह खिलाने बैठती थी। किसी महाराज या रसोइए, कहार या महरी को वह इस आनंद में बाधा न डालने देना चाहती थीं, फिर वह जिएँगी कैसे? जब तक दाननाथ को अपने सामने बैठ कर खिला न लें, उन्हें संतोष न होता था। दाननाथ भी माता पर जान देते थे, चाहते थे कि यह अच्छे से अच्छा खाएँ, पहनें और आराम से रहें मगर उनके पास बैठ कर बालकों की तोतली भाषा से बातें करने का उन्हें न अवकाश था न रूचि। दोस्तों के साथ गप-शप करने में उन्हें अधिक आनंद मिलता था। वृद्धा ने कभी मन की बात कही नहीं, पर उसकी हार्दिक इच्छा थी कि दाननाथ अपना पूरा वेतन लाकर उसके हाथ में रख दें, फिर वह अपने ढंग पर खर्च करती। तीन सौ रुपए थोड़े नहीं होते, न जाने कैसे खर्च कर डालता है। इतने रुपयों की गड्डी को हाथों से स्पर्श करने का आनंद उसे कभी न मिला था। दाननाथ में या तो इतनी सूझ नहीं थी, या तो लापरवाह थे। प्रेमा ने दो ही चार महीने में घर को सुव्यवस्थित कर दिया। अब हरेक काम का समय और नियम था, हरेक चीज़ का विशेष स्थान था, आमदनी और खर्च का हिसाब था। दाननाथ को अब दस बजे सोना और पाँच बजे उठना पड़ता था, नौकर-चाकर खुश थे और सबसे ज़्यादा खुश थी प्रेमा की सास। दाननाथ को जेब खर्च के लिए पच्चीस रुपए दे कर प्रेमा बाकी रुपए सास के हाथ में रख देती थी और जिस चीज़ की जरूरत होती, उन्हीं से कहती। इस भाँति वृद्धा को गृह-स्वामिनी का अनुभव होता था। यद्यपि शुरू महीने से वह कहने लगती थीं अब रुपए नहीं रहे, खर्च हो गए, क्या मैं रुपया हो जाऊँ, लेकिन प्रेमा के पास तो पाई-पाई का हिसाब रहता था, चिरौरी-विनती करके अपना काम निकाल लिया करती थी।
यह सब कुछ था, पर दाननाथ को अब भी यही शंका बनी हुई थी कि प्रेमा को अमृतराय से प्रेम है। प्रेमा चाहे दाननाथ के लिए प्राण तक निकाल कर रख दे पर इस शंका को उनके हृदय से न निकाल सकती थी। यदि प्रेमा की प्रेमकथा उन्हें पहले से मालूम न होती, तो शायद वह अपने को संसार में सबसे सुखी आदमी समझते। उससे वह क्या चाहते थे - उसमें उन्हें कौन-सी कमी नजर आती थी, यह वह खुद न जानते थे, पर एक अस्पष्ट-सी कल्पना किया करते थे कि तब कुछ और ही बात होती। वह नित्य ही इसी उधेड़बुन में पड़े रहते थे कि अमृतराय की ओर से इसका मन फेर दूँ। वेतन के उपरांत समाचार-पत्रों में लेख लिख कर, परीक्षा के पत्र देख कर उन्हें ख़ासी रकम हाथ आ जाती थी। इससे वे प्रेमा के लिए भाँति-भाँति के उपहार लाया करते। अगर उनके बस की बात होती, तो वह आकाश के तारे तोड़ लाते और उसके गले का हार बनाते। अपने साथी अध्यापकों से उसकी प्रशंसा करते उनकी जबान न थकती थी। उन्होंने पहले कभी कविता नहीं की थी। कवियों को तुकबंद कहा करते थे, लेकिन अब उनका गद्य भी कवित्वमय होता था। प्रेमा कवित्व की सजीव मूर्ति थी। उसके एक-एक ढंग, एक-एक भाव को देख कर कल्पना आप-ही-आप सजग हो जाती थी। उसके सम्मुख बैठ कर उन्हें दुनिया की याद न रहती थी, सारा वायु-मंडल स्वर्गमय हो जाता था। ऐसी कोमलता, ऐसा प्रकाश, ऐसा आकर्षण, ऐसा माधुर्य क्या पार्थिव हो सकता है। जब वह लंबी-लंबी पलकों से ढकी हुई, लज्जाशील, रसीली आँखों से उनकी ओर देखती तो दाननाथ का हृदय लहरा उठता था। सच्चा प्रेम, संयोग में भी वियोग की मधुर वेदना का अनुभव करता है । दाननाथ को प्रेमा अपने से दूर पड़ती थी।